Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः गबन


गबन

रमा ने झेंपते हुए कहा,'जी हां, म्युनिसिपल आफिस में हूं। अभी हाल ही में आया हूं। कानून की तरफ जाने का इरादा था, पर नए वकीलों की यहां जो हालत हो रही है, उसे देखकर हिम्मत न पड़ी। '
रमा ने अपना महत्व बढ़ाने के लिए ज़रा-सा झूठ बोलना अनुचित न समझा। इसका असर बहुत अच्छा हुआ। अगर वह साफ कह देता, 'मैं पच्चीस रूपये का क्लर्क हूं, तो शायद वकील साहब उससे बातें करने में अपना अपमान समझते। बोले, 'आपने बहुत अच्छा किया जो इधर नहीं आए। वहां दो-चार साल के बाद अच्छी जगह पर पहुंच जाएंगे, यहां संभव है दस साल तक आपको कोई मुकदमा ही न मिलता।'

जालपा को अभी तक संदेह हो रहा था कि रतन वकील साहब की बेटी है या पत्नी वकील साहब की उम्र साठ से नीचे न थी। चिकनी चांद आसपास के सफेद बालों के बीच में वारनिश की हुई लकड़ी की भांति चमक रही थी। मूंछें साफ थीं, पर माथे की शिकन और गालों की झुर्रियां बतला रही थीं कि यात्री संसार-यात्रा से थक गया है। आरामकुर्सी पर लेटे हुए वह ऐसे मालूम होते थे, जैसे बरसों के मरीज़ हों! हां, रंग गोरा था, जो साठ साल की गर्मीसर्दी खाने पर भी उड़ न सका था। ऊंची नाक थी, ऊंचा माथा और बडी-बडी आंखें, जिनमें अभिमान भरा हुआ था! उनके मुख से ऐसा भासित होता था कि उन्हें किसी से बोलना या किसी बात का जवाब देना भी अच्छा नहीं लगता। इसके प्रतिकूल रतन सांवली, सुगठित युवती थी, बडी मिलनसार, जिसे गर्व ने छुआ तक न था। सौंदर्य का उसके रूप में कोई लक्षण न था। नाक चिपटी थी, मुख गोल, आंखें छोटी, फिर भी वह रानी-सी लगती थी। जालपा उसके सामने ऐसी लगती थी, जैसे सूर्यमूखी के सामने जूही का फूल। चाय आई। मेवे, फल, मिठाई, बर्ग की कुल्फी, सब मेज़ों पर सजा दिए गए। रतन और जालपा एक मेज़ पर बैठीं। दूसरी मेज़ रमा और वकील साहब की थी। रमा मेज़ के सामने जा बैठा, मगर वकील साहब अभी आरामकुर्सी पर लेटे ही हुए थे।

रमा ने मुस्कराकर वकील साहब से कहा, 'आप भी तो आएं। '
वकील साहब ने लेटे-लेटे मुस्कराकर कहा, 'आप शुरू कीजिए, मैं भी आया जाता हूं।'
लोगों ने चाय पी, फल खाए, पर वकील साहब के सामने हंसते-बोलते रमा और जालपा दोनों ही झिझकते थे। जिंदादिल बूढ़ों के साथ तो सोहबत का आनंद उठाया जा सकता है, लेकिन ऐसे रूखे, निर्जीव मनुष्य जवान भी हों, तो दूसरों को मुर्दा बना देते हैं। वकील साहब ने बहुत आग्रह करने पर दो घूंट चाय पी। दूर से बैठे तमाशा देखते रहे। इसलिए जब रतन ने जालपा से कहा,चलो, हम लोग ज़रा बाग़ीचे की सैर करें, इन दोनों महाशयों को समाज और नीति की विवेचना करने दें, तो मानो जालपा के गले का गंदा छूट गया। रमा ने पिंजड़े में बंद पक्षी की भांति उन दोनों को कमरे से निकलते देखा और एक लंबी सांस ली। वह जानता कि यहां यह विपत्ति उसके सिर पड़ जायगी, तो आने का नाम न लेता।
वकील साहब ने मुंह सिकोड़कर पहलू बदला और बोले, 'मालूम नहीं, पेट में क्या हो गया है, कि कोई चीज़ हज़म ही नहीं होती। दूध भी नहीं हज़म होता। चाय को लोग न जाने क्यों इतने शौक से पीते हैं, मुझे तो इसकी सूरत से भी डर लगता है। पीते ही बदन में ऐंठन-सी होने लगती है और आंखों से चिनगारियां-सी निकलने लगती हैं।'
रमा ने कहा, 'आपने हाज़मे की कोई दवा नहीं की? '
वकील साहब ने अरूचि के भाव से कहा, 'दवाओं पर मुझे रत्ती-भर भी विश्वास नहीं। इन वैद्य और डाक्टरों से ज्यादा बेसमझ आदमी संसार में न मिलेंगे। किसी में निदान की शक्ति नहीं। दो वैद्यों, दो डाक्टरों के निदान कभी न मिलेंगे। लक्षण वही है, पर एक वैद्य रक्तदोष बतलाता है, दूसरा पित्तदोष, एक डाक्टर फेफड़े का सूजन बतलाता है, दूसरा आमाशय का विकार। बस, अनुमान से दवा की जाती है और निर्दयता से रोगियों की गर्दन पर छुरी ट्ठरी जाती है। इन डाक्टरों ने मुझे तो अब तक जहन्नुम पहुंचा दिया होता; पर मैं उनके पंजे से निकल भागा। योगाभ्यास की बडी प्रशंसा सुनता हूं पर कोई ऐसे महात्मा नहीं मिलते, जिनसे कुछ सीख सकूं। किताबों के आधार पर कोई क्रिया करने से लाभ के बदले हानि होने का डर रहता है। यहां तो आरोग्य-शास्त्र का खंडन हो रहा था, उधार दोनों महिलाओं में प्रगाढ़स्नेह की बातें हो रही थीं।
रतन ने मुस्कराकर कहा, 'मेरे पतिदेव को देखकर तुम्हें बडा आश्चर्य हुआ होगा। '
जालपा को आश्चर्य ही नहीं, भम्र भी हुआ था। बोली, 'वकील साहब का दूसरा विवाह होगा।
रतन, 'हां, अभी पांच ही बरस तो हुए हैं। इनकी पहली स्त्री को मरे पैंतीस वर्ष हो गए। उस समय इनकी अवस्था कुल पच्चीस साल की थी। लोगों ने समझाया, दूसरा विवाह कर लो, पर इनके एक लड़का हो चुका था, विवाह करने से इंकार कर दिया और तीस साल तक अकेले रहे, मगर आज पांच वर्ष हुए, जवान बेटे का देहांत हो गया, तब विवाह करना आवश्यक हो गया। मेरे मां-बाप न थे। मामाजी ने मेरा पालन किया था। कह नहीं सकती, इनसे कुछ ले लिया या इनकी सज्जनता पर मुग्ध हो गए। मैं तो समझती हूं, ईश्वर की यही इच्छा थी, लेकिन मैं जब से आई हूं, मोटी होती चली जाती हूं। डाक्टरों का कहना है कि तुम्हें संतान नहीं हो सकती। बहन, मुझे तो संतान की लालसा नहीं है, लेकिन मेरे पति मेरी दशा देखकर बहुत दुखी रहते हैं। मैं ही इनके सब रोगों की जड़ हूं। आज ईश्वर मुझे एक संतान दे दे, तो इनके सारे रोग भाग जाएंगे। कितना चाहती हूं कि दुबली हो जाऊं, गरम पानी से टब-स्नान करती हूं, रोज़ पैदल घूमने जाती हूं, घी-दूध कम खाती हूं, भोजन आधा कर दिया है, जितना परिश्रम करते बनता है, करती हूं, फिर भी दिन-दिन मोटी ही होती जाती हूं। कुछ समझ में नहीं आता, क्या करूं।
जालपा-'वकील साहब तुमसे चिढ़ते होंगे? '
रतन, 'नहीं बहन, बिलकुल नहीं, भूलकर भी कभी मुझसे इसकी चर्चा नहीं की। उनके मुंह से कभी एक शब्द भी ऐसा नहीं निकला, जिससे उनकी मनोव्यथा प्रकट होती, पर मैं जानती हूं, यह चिंता उन्हें मारे डालती है। अपना कोई बस नहीं है। क्या करूं। मैं जितना चाहूं, ख़र्च करूं, जैसे चाहूं रहूं, कभी नहीं बोलते। जो कुछ पाते हैं, लाकर मेरे हाथ पर रख देते हैं। समझाती हूं, अब तुम्हें वकालत करने की क्या जरूरत है, आराम क्यों नहीं करते, पर इनसे घर पर बैठे रहा नहीं जाता। केवल दो चपातियों से नाता है। बहुत ज़िद की तो दो चार दाने अंगूर खा लिए। मुझे तो उन पर दया आती है, अपने से जहां तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूं। आख़िर वह मेरे ही लिए तो अपनी जान खपा रहे हैं।'
जालपा-'ऐसे पुरूष को देवता समझना चाहिए। यहां तो एक स्त्री मरी नहीं कि दूसरा ब्याह रच गया। तीस साल अकेले रहना सबका काम नहीं है।'
रतन-'हां बहन, हैं तो देवता ही। अब भी कभी उस स्त्री की चर्चा आ जाती है, तो रोने लगते हैं। तुम्हें उनकी तस्वीर दिखाऊंगी। देखने में जितने कठोर मालूम होते हैं, भीतर से इनका ह्रदय उतना ही नरम है। कितने ही अनाथों, विधवाओं और ग़रीबों के महीने बांधा रक्खे हैं। तुम्हारा वह कंगन तो बडा सुंदर है! '
जालपा-'हां, बडे अच्छे कारीगर का बनाया हुआ है।'
रतन-'मैं तो यहां किसी को जानती ही नहीं। वकील साहब को गहनों के लिए कष्ट देने की इच्छा नहीं होती। मामूली सुनारों से बनवाते डर लगता है, न जाने क्या मिला दें। मेरी सपत्नीजी के सब गहने रक्खे हुए हैं, लेकिन वह मुझे अच्छे नहीं लगते। तुम बाबू रमानाथ से मेरे लिए ऐसा ही एक जोडाकंगन बनवा दो।'
जालपा-'देखिए, पूछती हूं।'
रतन-'-'आज तुम्हारे आने से जी बहुत ख़ुश हुआ। दिनभर अकेली पड़ी रहती हूं। जी घबडाया करता है। किसके पास जाऊं?' किसी से परिचय नहीं और न मेरा मन ही चाहता है कि उनसे मौी करूं। दो-एक महिलाओं को बुलाया, उनके घर गई, चाहा कि उनसे बहनापा जोड़ लूं, लेकिन उनके आचार-विचार देखकर उनसे दूर रहना ही अच्छा मालूम हुआ। दोनों ही मुझे उल्लू बनाकर जटना चाहती थीं। मुझसे रूपये उधार ले गई और आज तक दे रही हैं। ऋंगार की चीज़ों पर मैंने उनका इतना प्रेम देखा, कि कहते लज्जा आती है। तुम घड़ी-आधा घड़ी के लिए रोज़ चली आया करो बहन।'
जालपा-'वाह इससे अच्छा और क्या होगा.'
रतन-'मैं मोटर भेज दिया करूंगी।'
जालपा-'क्या जरूरत है। तांगे तो मिलते ही हैं।'
रतन-'न-जाने क्यों तुम्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता। तुम्हें पाकर रमानाथजी अपना भाग्य सराहते होंगे।'
जालपा ने मुस्कराकर कहा, 'भाग्य-वाग्य तो कहीं नहीं सराहते, घुड़कियां जमाया करते हैं।'
रतन-'सच! मुझे तो विश्वास नहीं आता। लो, वह भी तो आ गए। पूछना,ऐसा दूसरा कंगन बनवा देंगे।'
जालपा-'(रमा से) क्यों चरनदास से कहा जाए तो ऐसा कंगन कितने दिन में बना देगा! रतन ऐसा ही कंगन बनवाना चाहती हैं।'
रमा ने तत्परता से कहा-'हां, बना क्यों नहीं सकता इससे बहुत अच्छे बना सकता है।-'
रतन-'इस जोड़े के क्या लिए थे? '
जालपा-'आठ सौ के थे।'
रतन-'कोई हरज़ नहीं, मगर बिलकुल ऐसा ही हो, इसी नमूने का।'
रमा-'हां-हां, बनवा दूंगा। '
रतन- 'मगर भाई, अभी मेरे पास रूपये नहीं हैं।
रूपये के मामले में पुरूष महिलाओं के सामने कुछ नहीं कह सकता क्या वह कह सकता है, इस वक्त मेरे पास रूपये नहीं हैं। वह मर जाएगा, पर यह उज्र न करेगा। वह कर्ज़ लेगा, दूसरों की ख़ुशामद करेगा, पर स्त्री के सामने अपनी मजबूरी न दिखाएगा। रूपये की चर्चा को ही वह तुच्छ समझता है। जालपा पति की आर्थिक दशा अच्छी तरह जानती थी। पर यदि रमा ने इस समय कोई बहाना कर दिया होता, तो उसे बहुत बुरा मालूम होता। वह मन में डर रही थी कि कहीं यह महाशय यह न कह बैठें, सर्राफ से पूछकर कहूंगा। उसका दिल धड़क रहा था, जब रमा ने वीरता के साथ कहा, -'हां-हां, रूपये की कोई बात नहीं, जब चाहे दे दीजिएगा, तो वह ख़ुश हो गई।
रतन-'तो कब तक आशा करूं? '
रमानाथ-'मैं आज ही सर्राफ से कह दूंगा, तब भी पंद्रह दिन तो लग हीजाएंगे।'
जालपा-'अब की रविवार को मेरे ही घर चाय पीजिएगा। '
रतन ने निमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया और दोनों आदमी विदा हुए। घर पहुंचे, तो शाम हो गई थी। रमेश बाबू बैठे हुए थे। जालपा तो तांगे से उतरकर अंदर चली गई, रमा रमेश बाबू के पास जाकर बोला-'क्या आपको आए देर हुई?
रमेश-'नहीं, अभी तो चला आ रहा हूं। क्या वकील साहब के यहां गए थे?'
रमा-'जी हां, तीन रूपये की चपत पड़ गई।'
रमेश-'कोई हरज़ नहीं, यह रूपये वसूल हो जाएंगे। बडे आदमियों से राहरस्म हो जाय तो बुरा नहीं है, बड़े-बडे काम निकलते हैं। एक दिन उन लोगों को भी तो बुलाओ।'
रमा-'अबकी इतवार को चाय की दावत दे आया हूं।'
रमेश-'कहो तो मैं भी आ जाऊं। जानते हो न वकील साहब के एक भाई इंजीनियर हैं। मेरे एक साले बहुत दिनों से बेकार बैठे हैं। अगर वकील साहब उसकी सिफारिश कर दें, तो ग़रीब को जगह मिल जाय। तुम ज़रा मेरा इंट्रोडक्शन करा देना, बाकी और सब मैं कर लूंगा। पार्टी का इंतजाम ईश्वर ने चाहा, तो ऐसा होगा कि मेमसाहब ख़ुश हो जाएंगी। चाय के सेट, शीशे के रंगीन गुलदानऔर फानूस मैं ला दूंगा। कुर्सियां, मेज़ें, फर्श सब मेरे ऊपर छोड़ दो। न कुली की जरूरत, न मजूर की। उन्हीं मूसलचंद को रगेदूंगा।'
रमानाथ-'तब तो बडा मज़ा रहेगा। मैं तो बडी चिंता में पडा हुआ था।'
रमेश-'चिंता की कोई बात नहीं, उसी लौंडे को जोत दूंगा। कहूंगा, जगह चाहते हो तो कारगुजारी दिखाओ। फिर देखना, कैसी दौड़-धूप करता है।'
रमानाथ-'अभी दो-तीन महीने हुए आप अपने साले को कहीं नौकर रखा चुके हैं न?'
रमेश-'अजी, अभी छः और बाकी हैं। पूरे सात जीव हैं। ज़रा बैठ जाओ, ज़रूरी चीज़ों की सूची बना ली जाए। आज ही से दौड़-धूप होगी, तब सब चीजें जुटा सकूंगा। और कितने मेहमान होंगे? '
रमानाथ-'मेम साहब होंगी, और शायद वकील साहब भी आएं।'
रमेश-'यह बहुत अच्छा किया। बहुत-से आदमी हो जाते, तो भभ्भड़ हो जाता। हमें तो मेम साहब से काम है। ठलुओं की ख़ुशामद करने से क्या फायदा? '
दोनों आदमियों ने सूची तैयार की। रमेश बाबू ने दूसरे ही दिन से सामान जमा करना शुरू किया। उनकी पहुंच अच्छे-अच्छे घरों में थी। सजावट की अच्छी-अच्छी चीज़ें बटोर लाए, सारा घर जगमगा उठा। दयानाथ भी इन तैयारियों में शरीक थे। चीज़ों को करीने से सजाना उनका काम था। कौन गमला कहां रक्खा जाय, कौन तस्वीर कहां लटकाई जाय, कौन?सा गलीचा कहां बिछाया जाय, इन प्रश्नों पर तीनों मनुष्यों में घंटों वाद-विवाद होता था। दफ्तर जाने के पहले और दफ्तर से आने के बाद तीनों इन्हीं कामों में जुट जाते थे। एक दिन इस बात पर बहस छिड़ गई कि कमरे में आईना कहां रखा जाय। दयानाथ कहते थे, इस कमरे में आईने की जरूरत नहीं। आईना पीछे वाले कमरे में रखना चाहिए। रमेश इसका विरोध कर रहे थे। रमा दुविधो में चुपचाप खडाथा। न इनकी-सी कह सकता था, न उनकी-सी।
दयानाथ-'मैंने सैकड़ों अंगरेज़ों के ड्राइंग-ईम देखे हैं, कहीं आईना नहीं देखा। आईना ऋंगार के कमरे में रहना चाहिए। यहां आईना रखना बेतुकी-सी बात है।'
रमेश-'मुझे सैकड़ों अंगरेज़ों के कमरों को देखने का अवसर तो नहीं मिला है, लेकिन दो-चार जरूर देखे हैं और उनमें आईना लगा हुआ देखा। फिर क्या यह जरूरी बात है कि इन ज़रा-ज़रा-सी बातों में भी हम अंगरेज़ों की नकल करें- हम अंगरेज़ नहीं, हिन्दुस्तानी हैं। हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में बड़े-बड़े आदमकद आईने रक्खे जाते हैं। यह तो आपने हमारे बिगड़े हुए बाबुओं कीसी बात कही, जो पहनावे में, कमरे की सजावट में, बोली में, चाय और शराब में, चीनी की प्यालियों में, ग़रज़ दिखावे की सभी बातों में तो अंगरेज़ों का मुंह चिढ़ाते हैं, लेकिन जिन बातों ने अंगरेज़ों को अंगरेज़ बना दिया है, और जिनकी बदौलत वे दुनिया पर राज़ करते हैं, उनकी हवा तक नहीं छू जाती। क्या आपको भी बुढ़ापे में, अंगरेज़ बनने का शौक चर्राया है?'

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